आवारा की ज़ुबानी: सफर, सच और आज का फ़लसफ़ा
आवारा नाम दिया लोगों ने मैं आवारा बोल रहा हूं।
ना चाहत हैं ना मंजिल कोई बस सफर के साथ डोल रहा हूं।।
मालूम हैं हाथ में ना कुछ हैं फिर भी दरवाजों (उम्मीदों) को खोल रहा हूं।
गिरता उठता फिरसे चलता है मैं आवारा बोल रहा हूं।।
देखोगे मुझे तो असफल निराश ही पाओगे और देख रहे हो दुनिया की तरह तो कैसे ही परख पाओगे।
करता जो भी करता मन से क्योंकि फल की ना अभिलाषा, असफल हुआ अगर तो लगता जैसे खुद को नहीं तराशा।।
करता गलती कई बार पर उनको ना दोहराता।
हंसता हूं सुख दुख में क्योंकि मैं ना हूं बउराता।।
इस भेद भाव की दुनिया में मैं तनिक ना भेद मनाता।
जुड़ जाता हूं साथ में सबके तभी घुमक्कड़ कहलाता।।
ना देखता कोई परिस्थिति ना मैं अनुमान लगाता हूं।
मौका मिले जो गर मुझे मैं फौरन फरार हो जाता हूं।।
लोग बना रहे कल अपना मैं आज को आज बनाता हूं।
ना देखूं मैं शादी है या निकाह मैं बस शामिल हो जाता हूं।।
ना झूठ बोलता तनिक भी मैं बस सच में सच को घोल रहा हूं।
लगता अब भी आवारा अगर तो हा मैं हूं आवारा और आवारा ही बोल रहा हूं।।
यश शर्मा
Claas 11th
द रेनेसां एकेडमी तिलहर, शाहजहांपुर।